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ए॒षा दि॒वो दु॑हि॒ता प्रत्य॑दर्शि व्यु॒च्छन्ती॑ युव॒तिः शु॒क्रवा॑साः। विश्व॒स्येशा॑ना॒ पार्थि॑वस्य॒ वस्व॒ उषो॑ अ॒द्येह सु॑भगे॒ व्यु॑च्छ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

eṣā divo duhitā praty adarśi vyucchantī yuvatiḥ śukravāsāḥ | viśvasyeśānā pārthivasya vasva uṣo adyeha subhage vy uccha ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒षा। दि॒वः। दु॒हि॒ता प्रति॑। अ॒द॒र्शि॒। वि॒ऽउ॒च्छन्ती॑। यु॒व॒तिः। शु॒क्रऽवा॑साः। विश्व॑स्य। ईशा॑ना। पार्थि॑वस्य। वस्वः॑। उषः॑। अ॒द्य। इ॒ह। सु॒ऽभ॒गे॒। वि। उ॒च्छ॒ ॥ १.११३.७

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:113» मन्त्र:7 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:2» मन्त्र:2 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब उषा के दृष्टान्त से विदुषी स्त्री के व्यवहार को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - जैसे (शुक्रवासाः) शुद्ध पराक्रमयुक्त (विश्वस्य) समस्त (पार्थिवस्य) पृथिवी में प्रसिद्ध हुए (वस्वः) धन की (ईशाना) अच्छे प्रकार सिद्ध करानेवाली (व्युच्छन्ती) और नाना प्रकार के अन्धकारों को दूर करती हुई (एषा) यह (दिवः) सूर्य्य की (युवतीः) ज्वान अर्थात् अति पराक्रमवाली (दुहिता) पुत्री प्रभात वेला (प्रत्यदर्शि) बार-बार देख पड़ती है, वैसे हे (सुभगे) उत्तम भाग्यवती (उषः) सुख में निवास करनेहारी विदुषी ! (अद्य) आज तू (इह) यहाँ (व्युच्छ) दुःखों को दूर कर ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जब ब्रह्मचर्य किया हुआ सन्मार्गस्थ ज्वान विद्वान् पुरुष अपने तुल्य, अपने विद्यायुक्त, ब्रह्मचारिणी, सुन्दर रूप, बल, पराक्रमवाली, साध्वी अच्छे स्वभावयुक्त सुख देनेहारी, युवति अर्थात् बीसवें वर्ष से चौबीसवें वर्ष की आयु युक्त कन्या से विवाह करे, तभी विवाहित स्त्री-पुरुष उषा के समान सुप्रकाशित होकर सब सुखों को प्राप्त होवें ॥ ७ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथोषो दृष्टान्तेन विदुषीव्यवहारमाह ।

अन्वय:

यथा शुक्रवासाः शुद्धवीर्या विश्वस्य पार्थिवस्य वस्व ईशाना व्युच्छन्त्येषा दिवो युवतिर्दुहिता उषा प्रत्यदर्शि वारंवारमदर्शि तथा हे सुभग उषोऽद्य दिने इह व्युच्छ दुःखानि विवासय ॥ ७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एषा) वक्ष्यमाणा (दिवः) प्रकाशमानस्य सूर्यस्य (दुहिता) पुत्री (प्रति) (अदर्शि) दृश्यते (व्युच्छन्ती) विविधानि तमांसि विवासयन्ती (युवतिः) प्राप्तयौवनावस्था (शुक्रवासाः) शुक्रानि शुद्धानि वासांसि यस्याः सा शुद्धवीर्य्या वा (विश्वस्य) सर्वस्य (ईशाना) प्रभवित्री (पार्थिवस्य) पृथिव्यां विदितस्य (वस्वः) द्रव्यस्य (उषः) सुखे निवासिनि विदुषि। अत्र वस निवास इत्यस्मादौणादिकोऽसुन् स च बाहुलकात् कित्। (अद्य) (इह) (सुभगे) सुष्ठ्वैश्वर्य्याणि यस्यास्तत्सम्बुद्धौ (वि) (उच्छ) विवासय ॥ ७ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदा कृतब्रह्मचर्य्येण विदुषा साधुना यूना स्वतुल्या कृतब्रह्मचर्या सुरूपवीर्या साध्वी सुखप्रदा पूर्णयुवतिर्विंशतिवर्षादारभ्य चतुर्विंशतिवार्षिकी कन्याऽऽध्युदुह्येत तदैवोषर्वत् सुप्रकाशितौ भूत्वा विवाहितौ स्त्रीपुरुषौ सर्वाणि सुखानि प्राप्नुयाताम् ॥ ७ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेव्हा ब्रह्मचर्य धारण केलेल्या सन्मार्गी तरुण पुरुषाने आपल्यासारख्या विद्यायुक्त ब्रह्मचारिणी, सुंदर रूप, बल, पराक्रम यांनी युक्त, सात्त्विक, चांगल्या स्वभावाच्या, सुखी करणाऱ्या युवतीबरोबर विवाह करावा. तिचे वय वीस ते चोवीसच्या दरम्यान असावे. विवाहित स्त्री-पुरुषांनी उषेप्रमाणे सुप्रकाशित व्हावे. व सर्व सुख प्राप्त करावे. ॥ ७ ॥